मिर्जा गालिब शायरों के दुनिया का एक बड़ा नाम है जो किसी के परिचय का मोहताज नहीं है। हालांकि उन्होंने अपनी शायरी में फ़ारसी का इस्तेमाल ज्यादा किया है इसलिए ये सभी लोगों की समझ से परे है लेकिन इसके बावजूद भी इनके शेर और गजलें लोगों के दिलों के करीब हैं। उन्होंने हर मौजू पर दिल से लिखा। बात इश्क की हो या फिर खुदा की मिर्जा गालिब का कोई मुकाबला नहीं। उनकी शायरियां आज भी मोहब्बत करने वालों के लिए इजहार का काम करती हैं तो कहीं जिंदगी के फलसफे सुनाती हैं।
'न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता'
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कुछ ऐसी थी जिंदगानी
गालिब ने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी
मिर्जा गालिब का मूल नाम मिर्जा असद-उल्लाह बेग खाँ था और इनका मूल उपनाम असद था, लेकिन इन्होंने अपना नाम बाद में बदल कर गालिब रख लिया था, इसका मतलब होता है ‘विजेता। अगर ऐतिहासिक साक्ष्यों की बात करें तो गालिब ने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी। मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1796 को काला महल, आगरा में हुआ था। मिर्जा की शादी महज 13 साल की उम्र में नवाब इलाही बक्श की बेटी उमराव बेगम से हो गई। उनके सात बच्चे थे लेकिन सभी की मौत हो गई। बच्चों के न रह जाने का ये गम भी उनकी गजल में साफ दिखता है। उन्होंने लिखा है,
“क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-ग़म, अस्ल में दोनों एक हैं,मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यूँ?”
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साहित्यिक सफर
गजलों में दिखता है जिंदगी का दर्द
मिर्जा गालिब अपनी गजलों के लिए ज्यादा फेमस हुए। मिर्जा गालिब की प्रतिभा बहुत कम उम्र में ही दिखने लगी थी। महज 19 साल की उम्र में गालिब ने कई कविताएं लिखीं। शुरुआत में गालिब अपनी गजलों के माध्यम से प्यार के दर्द को व्यक्त करते थे, लेकिन इन्होंने बाद में अपनी सीमाओं को बढ़ाया। उन्होंने अपने जीवन के दर्द और फ़लसफा को व्यक्त करने के लिए उर्दू भाषा पर फोकस किया। उन्होंने अपनी कृतियों में हास्यपूर्ण गद्य की भी रचना की और इसके प्रमाण उन पत्रों में मिलते हैं जो उन्होंने अपने मित्रों को लिखे थे। वो मिर्जा ही थे जिन्होंने उर्दू भाषा का खूबसूरती से इस्तेमाल अपनी गजलों में किया था।
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
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खाने में सबसे ज्यादा पसंद था आम
गालिब को आम बहुत पसंद थे
गालिब को आम बहुत पसंद थे वो अपने दोस्तों को भी आम भेजते थे। आम से जुड़ा ही एक मशहूर किस्सा है एक बार वो मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फर और उनके कुछ साथियों के साथ लाल किला में टहल रहे थे। वहां अलग-अलग किस्म के आम के पेड़ थे, जो कि सिर्फ़ बादशाह, शहज़ादों और उनकी बेगमों के लिए थे। गालिब हर आम को बड़े ध्यान से देख रहे थे। बादशाह ने पूछा, ‘आप हर आम को इतने ध्यान से क्यों देख रहे हैं? इसपर उन्होंने जवाब दिया, ‘मेरे मालिक और मेरे रहनुमा, एक बार किसी शायर ने कहा था कि हर आम पर, उसे खाने वाले का नाम लिखा होता है। मैं अपने दादा, पिता और अपना नाम तलाश रहा हूं।’ बाद में बादशाह ने एक टोकरी आम गालिब को भेजे।
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और गालिब के पत्र बन गए धरोहर
पत्रों के दो संकलन छपे
गालिब अक्सर अपने दोस्तों और शिष्यों को पत्र लिखा करते थे और आज यही पत्र ऊर्दू साहित्य के लिए धरोकर बन गए। इनके दो सकंलन छपे ये कहना गलत नहीं होगा कि गालिब दुनिया के एकमात्र ऐसे शायर थे जिनके पत्र इतने चर्चित हो गए। उनके पत्रों के एक संकलन का नाम ऊद ए हिंदी (भारत की खुशबु) और दूसरे संकलन का नाम उर्दू ए मोअल्ला (उच्च उर्दू) है। गालिब पत्रों को इस तरह संवाद समझते थे कि जब कोई पत्र आता था तो उनको लगता कि वह व्यक्ति खुद आया है, गालिब के पत्रों में उनका व्यक्तित्व झलकता है। उनके पत्रों पर आधारित दो किताबें सबसे ज्यादा बिकती हैं।
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दोस्तों के लिए सबकुछ कर गुजरने वाले
गालिब अपनी दोस्तों की आमदनी पर एक अच्छी खासी रकम खर्च कर देते थे।
गालिब अपनी दोस्तों की आमदनी पर एक अच्छी खासी रकम खर्च कर देते थे। वो अपने शराब पीने वाले दोस्तों का बहुत ख्याल रखते थे। एक पत्र में अपने अकेलेपन की बात यूं लिखते हैं ‘क्यों साहिब मुझसे क्यों खफा हो आज महीना भर हो गया या दो चार दिन बाद हो जाएगा कि तुम्हारा खत नहीं आया इंसाफ करो कितना कसीर उल अहबाब (बहुसंख्यक मित्रों वाला)आदमी था मैं, कोई वक्त ऐसा न था जब मेरे पास दो चार दोस्त न होते हों। अब सिर्फ एक शिव राम ब्राह्मण और बालमुकुंद बाकी रह गए हैं जो गाह गाह (समय समय पर) आते हैं।’ इस लाइन से पता चलता है कि उनके दोस्त उनके लिए कितने खास हुआ करते थे।
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शिष्य को दी बेटे की जगह
पंडित हर गोपाल को लिखते थे पत्र
मिर्जा गालिब के पत्रों को पढ़कर ये पता चलता है कि वो अपने शिष्य पंडित हर गोपाल तफ्ता से बहुत प्यार करते थे यहां तक की उनको अपना बेटा मानते थे। गालिब की अपने कोई बच्चे जीवित नहीं थे शायद इसलिए उन्होंने प्रेम पंडित हर गोपाल को अपना बेटा मान लिया था। पंडित हर गोपाल सिंकदराबाद में रहते थे और गालिब दिल्ली में इसलिए उनके बीच पत्रों से ही बात होती थी। गालिब उनको अपने परिवार जैसा ही समझते थे और अपने पत्रों में उनको ‘मर्जा तफ्ता’ कहकर संबोधित करते थे। एक पत्र में उन्होंने लिखा,
‘आओ मिर्जा तफ्ता मेरे गले लग जाओ, बैठो और मेरी हकीकत सुनो’।
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शाही दरबार के दरबारियों में भी थे शामिल
गुलजार ने इनके जीवन पर एक टीवी सीरियल ‘मिर्जा गालिब’ बनाया था।
मिर्जा गालिब सम्राट बहादुर शाह जफर के शाही दरबार के दरबारियों में से एक थे। मिर्जा गालिब को सम्राट के कवि और मुगल दरबार के शाही इतिहासकार के रूप में चुना गया था। उन्हें “दबीर-उल-मुल्क” के खिताब से नवाजा गया। हालांकि उन्होंने कभी एक जगह टिककर नौकरी नहीं की। 15 फरवरी 1869 को उनका निधन हो गया। मिर्जा भले अपने जीते ज्यादा प्रसिद्ध न हो सके हों लेकिन मृत्यु के बाद वह काफी प्रसिद्ध हो गए। गुलजार ने इनके जीवन पर एक टीवी सीरियल ‘मिर्जा गालिब’ बनाया था। ये सीरियल दूरदर्शन पर भी हुआ था।