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अमृता प्रीतम: जिनकी नामुकम्मल मोहब्बत के किस्से मशहूर हो गए
पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम अपने समय की मशहूर लेखिकाओं में से एक थीं आज उनका 100वां जन्मदिन है।
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''अब रात घिरने लगी तो तू मिला है, तू भी उदास, चुप, शांत और अडोल, मैं भी उदास, चुप, शांत और अडोल, सिर्फ- दूर बहते समुद्र में तूफान है…'' 

साहिर और अमृता की प्रेम कहानी को उनके खतों से ही पहचाना जा सकता है। उन्होंने ये बात भी साबित कर दी कि मोहब्बत को सरहदें भी नहीं रोक सकती, कैसे लाहौर और दिल्ली के किसी कोने में बैठे दो दिल एक साथ एक-दूसरे के लिए धड़कते थे, कैसे एक दूसरे की तकलीफों को बिना कहे समझ लेते थे, अपने इश्क को खतों में लपेटकर एक-दूसरे को भेजते थे। अमृता एक ऐसी बेबाक लेखिका थीं जिनकी कलम ने मोहब्बत लिखी, प्यार से बिछड़ने का दर्द लिखा, बंटवारे का मर्म लिखा और तमाम उन लड़कियों के लिए प्रेरणा लिखी जो लोगों के डर से अपनी जिंदगी को दूसरों के मुताबिक जीती हैं। एक ऐसे परिवार में रहने के बावजूद जहां हिंदू और मुस्लिम के बर्तन तक अलग थे, शादी सात जन्मों का बंधन था,अमृता ने दो लोगों से प्यार किया वो भी अलग मजहब के एक मुस्लिम और दूसरा सिख। उन्होंने उन सारी बंदिशों और नियमों को तोड़कर दरकिनार कर दिया जो उस दौर में लड़कियों को मोहब्बत करने की इजाजत नहीं देतीं थीं। पंजाब की एक बागी लेखिका की कविताओं और प्यार के चर्चिम किस्सों ने पूरे देश में क्रांति ला दी थी।

  • छह साल की उम्र में हुई थी सगाई

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    16 साल कि उम्र में उनकी शादी प्रीतम सिंह से हो गई थी

    अमृता का जन्म 31 अगस्त 1919 में गुंजरावाला में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। अमृता प्रीतम ने बचपन से ही पंजाबी में कविता, कहानी और निबंध लिखना शुरू कर दिया था।  जब वह 11 साल की हुईं उनकी मां का निधन हो गया और उनके कंधों पर जिम्मेदारी आ गई। अमृता ने अपनी जीवनी रसीदी टिकट में इस बात का जिक्र किया है कि कैसे उनकी बीमार मां पलंग पर लेटी रहती है। मैंने बड़े बुजुर्गों से सुन रखा था कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं और भगवान बच्चों की बात नहीं टालते। मैंने भी अपनी मरती हुई माँ की सलामती की दुआ की मुझे विश्वास था कि अब माँ की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता पर माँ मर गई और मेरा ईश्वर के ऊपर से विश्वास हट गया। अमृता कि सगाई 6 बरस की उम्र में हो गई थी और 16 साल कि उम्र में उनकी शादी प्रीतम सिंह से हो गई लेकिन उन्होंने पूरी जिंदगी सिर्फ साहिर से प्रेम किया दो बच्चे कि मां बनी। साहिर कि मुहब्बत दिल में होने के कारण उन्होंने खुद को शादी-शुदा जीवन से बाहर निकलने का फैसला लिया। लेकिन इसके बाद जब साहिर को किसी और से मोहब्बत हो गई तो अमृता ने बिना कोई सवाल किए रिश्ते को खत्म कर दिया। 

  • साहिर से पहली मुलाकात

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    अमृता और साहिर की पहली मुलाकात 1944 में हुई।

    अमृता और साहिर की पहली मुलाकात 1944 में हुई। अमृता एक मुशायरे में गई थीं और साहिर लुधियानवी से यहीं मिलीं, वहां से लौटने पर बारिश हो रही थी और उन्होंने बाद में लिखा, ''मुझे नहीं मालूम कि साहिर के लफ्जों की जादूगरी थी या कि उनकी खामोश नज़र का कमाल था लेकिन कुछ तो था जिसने मुझे अपनी तरफ़ खींच लिया। आज जब उस रात को मुड़कर देखती हूं तो ऐसा समझ आता है कि तक़दीर ने मेरे दिल में इश्क़ का बीज डाला जिसे बारिश की फुहारों ने बढ़ा दिया।''  साहिर को सिगरेट पीने की आदत थी, अमृता लिखती हैं, 'वो खामोशी से सिगरेट जलाता और फिर आधी सिगरेट ही बुझा देता, फिर एक नई सिगरेट जला लेता, जबतक वो विदा लेता, कमरा ऐसी सिगरेटों से भर जाता। मैं इन सिगरेटों को हिफाजत से उठाकर अलमारी में रख देती और जब कमरे में अकेली होती तो उन सिगरेटों को एक-एक करके पीती। मेरी उंगलियों में फंसी सिगरेट, ऐसा लगता कि मैं उसकी उंगलियों को छू रही हूं। मुझे धुएं में उसकी शक्ल दिखाई पड़ती, ऐसे मुझे सिगरेट पीने की लत पड़ी। 

  • इमरोज की पीठ पर साहिर का नाम

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    40 साल साथ रहे अमृता और इमरोज

    जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर उनकी मुलाकात इमरोज से हुई और इस बात की अमृता को हमेशा शिकायत रही। उन्होंने इमरोज के लिए लिखा है, ‘अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते’।


    दोनों ने उस दौर में बिना शादी के एक साथ रहने का फैसला किया,वो एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरों में रहे। जब इमरोज ने कहा कि वह अमृता के साथ रहना चाहते हैं तो उन्होंने कहा पूरी दुनिया घूम आओ फिर भी तुम्हें लगे कि साथ रहना है तो मैं यहीं तुम्हारा इंतजार करती मिलूंगी। कहा जाता है कि तब कमरे में सात चक्कर लगाने के बाद इमरोज ने कहा कि घूम लिया दुनिया मुझे अभी भी तुम्हारे ही साथ रहना है। इमरोज को अमृता से इतनी मुहब्बत थी कि उनके घर की हर दीवार, खम्भों हर जगह आज भी सिर्फ अमृता की तस्वीरें लगी हैं जो उन्होंने बनाई थीं। अमृता जब रात की खामोशी में लिखने बैठती थीं तो इमरोज टेबल पर चुपचाप चाय का कप रख जाते थे और ये बात अमृता को नहीं पता भी नहीं चलती थी।  इमरोज़ जब भी उन्हें स्कूटर पर ले जाते थे और अमृता अपनी उंगलियों से हमेशा उनकी पीठ पर कुछ न कुछ लिखती रहती थीं और यह बात इमरोज भी जानते थे कि लिखा हुआ शब्द साहिर है। इमरोज़ के साथ अमृता ने अपनी जिंदगी के आखिरी 40 साल गुजारे। आखिरी समय में जब उन्हें चलने फिरने में तकलीफ होती थी तब इमरोज ही उन्हें नहलाते, खिलाते, घुमाते थे। 31 अक्टूबर 2005 को अमृता ने आख़िरी सांस ली, लेकिन इमरोज़ का कहना था कि अमृता उन्हें छोड़कर नहीं जा सकती वह अब भी उनके साथ हैं।

  • साहित्य अकादमी पुरस्‍कार पाने वाली पहली महिला

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    अमृता ने अपने पूरे जीवन में करीब 100 किताबें लिखीं। उन्‍हें पद्मविभूषण, साहित्य अकादमी पुरस्‍कार और ज्ञानपीठ  पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया था। वे साहित्य अकादमी पुरस्‍कार पाने वाली पहली महिला थीं। इनकी रचनाओं में दिल्ली की गलियां, एक थी अनीता, काले अक्षर, कर्मों वाली, केले का छिलका, दो औरतें, यह हमारा जीवन, आक के पत्ते ,यात्री, एक सवाल, धूप का टुकड़ा, गर्भवती और रसीदी टिकट चर्चित है। अमृता को सबसे ज्यादा शोहरत पंजाबी कविता अज्ज आखां वारिस शाह नूं से मिली। इसमें उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के दर्द को लिखा है। इसे दोनों ही देश में सराहा गया कहा जाता है कि ये कविताएं इतनी मार्मिक थीं कि लाखों लोग इसे जेब में लेकर चलते थे। उन्होंने औरतों की त्रासदी और हालात पर कई उपन्यास लिखे जो बाद में बहुत मशहूर हुए इनमें से पिंजर पर फिल्म भी बनीं। अमृता की रचनाओं को पूरी दुनिया में सराहा गया, उनकी लिखी हुई कविताएं, कहानियां, नज़्में हर मोहब्बत करने वाले के दिलों में आज भी जिंदा हैं। अमृता के जिंदगी में कई ऐसे पड़ाव आए जिसमें कोई भी उम्मीद हार जाए, माँ की मौत, बंटवारे की तकलीफ, एक अनचाही शादी, साहिर से प्यार फिर दूरिया और इमरोज़ का साथ लेकिन इनके बावजूद उनकी लिखावट में उम्मीद ही दिखी। उन्होंने लिखा है, '

    'दुखांत यह नहीं होता कि ज़िंदगी की लंबी डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखेरते रहें और आपके पैरों से सारी उम्र लहू बहता रहे, दुखांत यह होता है कि आप लहू-लुहान पैरों से एक उस जगह पर खड़े हो जाएं, जिसके आगे कोई रास्ता आपको बुलावा न दे ।''

  • अमृता की मशहूर कविताएं जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता

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    ‘कागज ते कैनवास’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला

    अमृता ने कई ऐसी कविताएं और नज्म लिखीं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने दिल को पंजाबी, उर्दू और हिंदी में दिल को छू लेने वाली रचनाएं कीं। 


    रोजी


    सपने — जैसे कई भट्टियाँ हैं

    हर भट्टी में आग झोंकता हुआ

    मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है


    तेरा मिलना ऐसे होता है

    जैसे कोई हथेली पर

    एक वक़्त की रोजी रख दे।



    मैं तुझे फिर मिलूँगी


    मैं तुझे फिर मिलूँगी

    कहाँ कैसे पता नहीं

    शायद तेरे कल्पनाओं

    की प्रेरणा बन

    तेरे कैनवास पर उतरुँगी

    या तेरे कैनवास पर

    एक रहस्यमयी लकीर बन

    ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी

    मैं तुझे फिर मिलूँगी

    कहाँ कैसे पता नहीं


    सिगरेट 


    यह आग की बात है

    तूने यह बात सुनाई है

    यह ज़िंदगी की वो ही सिगरेट है

    जो तूने कभी सुलगाई थी


    चिंगारी तूने दे थी

    यह दिल सदा जलता रहा

    वक़्त कलम पकड़ कर

    कोई हिसाब लिखता रहा।


    वारिस शाह


    आज वारिस शाह से कहती हूँ

    अपनी कब्र में से बोलो

    और इश्क की किताब का

    कोई नया वर्क खोलो

    पंजाब की एक बेटी रोई थी

    तूने एक लंबी दास्तान लिखी

    आज लाखों बेटियाँ रो रही हैं।

  • अमृता प्रीतम की मशहूर रचनाएं

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    विभाजन के बाद उन्होंने 'पिंजर' नाम का उपन्यास लिखा

    अमृता ने कविता संग्रह, उपन्यास, निबंध मिलाकर लगभग 100 रचनाएं लिखीं जिन्हें कई भाषाओं में अनुवादित किया गया। अमृता प्रीतम लिखती हैं, ‘मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास, सब एक नाजायज बच्चे की तरह हैं। विभाजन के बाद उन्होंने 'पिंजर' नाम का उपन्यास लिखा जिसमें बंटवारे की त्रासदी झेल रही महिलाओं का जिक्र था। इसके अलावा उनकी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' बहुचर्चित रही। 1982 में उन्हें ‘कागज ते कैनवास’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। पांच बरस, लंबी सड़क, पिंजर, अदालत,कोरे कागज़, उन्चास दिन, सागर और सीपियां, नागमणि, रंग का पत्ता, दिल्ली की गलियां, तेरहवां सूरज उनके प्रसिद्ध उपन्यास थे। कच्चा आंगन, एक थी सारा उनके संस्मरण थे। 'काला गुलाब' में उन्होंने अपनी जिंदगी से जुड़े कई अनुभवों को खुलकर बयां किया। इसके अलावा उन्होंने कई ऐसी कविताएं व नज्म लिखे जिसका असर आज भी उतना ही प्रभावशाली है जितना बरसों पहला था।    

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